Sunday 11 March 2012

ज़ज्बात

यह आलम खामोश सा क्यूँ हुआ है,
यह दीवाना मदहोश सा क्यूँ हुआ है,
अंदाज़-ए-बयाँ कुछ खिलाफ़ती से हैं,
यह पागल सरफ़रोश सा क्यूँ हुआ है;

अनकही तमन्नाओं की तस्वीर सजा रखी है,
जाने कब सुनी जायेगी....
ऐसी रज़ा रखी है,
मंजिल की तलाश में चल पड़ा है मुसाफिर,
यह राही खानाबदोश सा क्यूँ हुआ है;

मिन्नतकश-ए-यार था नौजवाँ अपना,
इतने रक़ीबों से घिरा होगा, सोचा ना था,
जाने किस राह पर निकल चुका है ग़ज़लसरा,
यह "परिंदा" एहसान फ़रामोश सा क्यूँ हुआ है.....

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