Monday 26 December 2011

शांत मस्तिष्क की
दीवारों पर
मेरे ख्याल
जम से गयें हैं,
तुम जो नहीं हो ना
आजकल
उन्हें सँभालने को;
स्वयं ही रखता हूँ
उनका ध्यान,
यदा-कदा कुरेद देता हूँ;
हर परत के नीचे तुम्हारे निशाँ
छुपे मिलते हैं,
ज्यादा ही खुरच दूं
तो
तुम्हारी महक से
दिल बहक जाता है;
मैं कवि नहीं हूँ,
और न ही कभी था;
सिर्फ तुम्हारे लिए
कुछ लिख देता था,
आज तुम नहीं हो
पास मेरे,
लिखना चाहूं भी तो
क्या लिखूं;
शब्दों का हुनर नहीं रहा
 मेरे पास कभी
अब कुछ यादें हैं,
स्याही में पिरो दूंगा....

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